कोरोना ने किसी को नहीं छोड़ा है। अमीर-ग़रीब, छोटे-बड़े, नेता-जनता, अफ़सर-बाबू सब पर महामारी की मार है। पत्रकार भी उसी समाज का अंग हैं। न्यूज़-लॉंड्री की एक रिपोर्ट के अनुसार साल भर में क़रीब सत्तर पत्रकार कोरोना की बलि चढ़कर हमसे बिछुड़ चुके। कुछ मौत से जूझ रहे हैं। अनेक ठीक हो रहे हैं और काम पर लौट रहे हैं।

अरुण पांडे काम पर रहते कोरोना की गिरफ़्त में आ गए थे। अजीत अंजुम के साथ, महामारी के तमाम ख़तरों के बीच, दिल्ली से बंगाल की उड़ान भरी। वहाँ अनथक काम किया। झूठी ख़बरें और ‘सर्वे’ देने वाले चापलूस गोदी मीडिया की काट उन जैसे पत्रकारों ने ही की। अंततः उनका कहा सच निकला। झूठ उजागर हो गया।
अरुण हमारे जनसत्ता आवास परिसर में पड़ोसी थे, इसलिए उनके निधन की ख़बर से सारा घर ग़मगीन है। हालाँकि ज़्यादा बात, गपशप वाला रिश्ता न था। फिर भी लगता था कि हमारी बात कम होकर भी होती रहती है। वे हमख़याल थे। और व्यवहार में निहायत संजीदा।

सामाजिक सरोकार उनके काम में मुखर था। जनसत्ता में विचारोत्तेजक और साहित्यिक-सांस्कृतिक सामग्री की नियमित और पर्याप्त जगह बनाते हुए हम लोग सोचा करते थे कि दिनमान की भूमिका को अपने पन्नों पर उतार रहे हैं। हिंदी के सिद्ध बौद्धिक हमारे साथ थे। प्रतिबद्ध पाठक वर्ग कम प्रसार के दिनों में भी हमारा संबल था। अन्य हिंदी अख़बारों में उतनी गम्भीर सामग्री शायद नहीं छपती थी।
मगर तभी सहारा में “हस्तक्षेप” परिशिष्ट का ज़ोर बढ़ा। उसके पीछे विभांशु दिव्याल, अरुण पांडे जैसे पत्रकारों का ही सोच और परिश्रम था। हम लोग चाव से उनके काम को देखते और सराहते थे, मानो प्रतिस्पर्धा में हों। अनेक नए लेखकों को भी उनके यहाँ जगह मिलती थी। सामयिक मुद्दों पर संवाद या बहस का सिलसिला भी उनके यहाँ चलता रहता था।

सूचना के अधिकार पर अरुण निजी तौर पर ख़ास रुझान रखते थे। एक फ़ेलोशिप पर उन्होंने बाद में इस विषय पर किताब भी लिखी।
उनकी संजीदगी और प्रतिबद्धता याद रहेगी। सोच पाना मुश्किल है कि पुतुल, उनके पुत्र-पुत्री और अन्य परिजन इस असमय विछोह को कैसे झेल पाएँगे।
ओम थानवी