संध्या समय में, जब घर लौटा
थकान, दर्द से विलाप करते
कुछ टुटे स्वप्नों, निराशाओं से हाथ मलते
निढाल ढोते निर्बल शरीर के साथ
अपनी साँसों को नियंत्रित कर रहा था
आसमान में पुरी चन्द्रमा
अपनी स्निग्ध शीतलता उड़ेल रही थी
मैं, उसके चंचल उजाले में बैठ
शीतल सुधामय वायु के साथ
अपने जख्मों को लगाना चाहा मलहम
ताकि प्राण लहरियों में फिर से
हरियाली आ जा सके
तभी, दरवाजे पर दस्तक हुआ
और मैं उस ओर थथम कर देखने लगा
उस महाजन को, जिसका मैं कर्जदार था
वह मुझे ऐसे घुर रहा था जैसे
उसके सबसे अनमोल धरोहर पर
मैं किसी घिनौने जीव की भांति
घात लगाए बैठा हूँ
मेरी आँखों में व्याप्त कातरता
उसके चेहरे पर उत्पन्न भर्त्सना में
थोड़ी सी मोहलत और याचना के
निर्बल, निःशब्द गुहार लगा रही थी
उसने तीखे शब्दों का प्रहार किया
मेरी विवशता थी, उसे स्वीकार किया
उसने अपशब्दों, कुशब्दों का चाबुक फेंका
मेरी दीनता थी, उसे मुक सुनता रहा
निर्लजों की तरह, पुरी हया को भुलकर
उसने कहा ‘कामचोर’
और मेरा कठोर श्रम
संघर्षों में ईमानदार पसीना बहाते
लहूलुहान होकर बिखर गया
मेरी वफादारी, मेरी विनम्रता
मेरी ही आत्मा से सवाल करने लगा
उद्धार हो जाओ,
साहुकार से, बेचारी किस्मत से
जिंदगी भी एक साहुकार है
उसका भी कर्ज चुकाने होंगे, बन्धु !
सुरेन्द्र प्रजापति
गया, बिहार